Sunday, April 15, 2018

म्यांमार में थे जमींदार देश लौटने के बाद रिक्शा चलाने को हैं मजबूर

- गिरमिटिया बनाकर भोजपुर से इनके पूर्वजों को ले जाया गया था तत्कालीन बर्मा
-       -  बर्मा में धीरे-धीरे हो गए थे संपन्न, 1974 में वहां से आ गए चंपारण
-     -    तत्कालीन केन्द्र सरकार के आग्रह पर लौट आए थे अपने वतन
-        जमीन का किया था वादा, 74 में दी गयी जमीन पर नहीं मिला कब्जा
-        - 14 परिवारों ने भारत सरकार से जमीन देने या वापस म्यांमार भेजने की रखी मांग
-        - 24 जून 1974 को बर्मा से भारत लाए गए थे मजदूर, बेतिया के रिफ्यूजी कैम्प में
- -       1974 में खेती के लिए मैनाटांड़ में दी गई थी जमीन, आज तक नहीं मिला कब्जा

जो परिवार म्यांमार में अच्छी-खासी जमीन और संपत्ति के मालिक थे वे आज चंपारण में रिक्शा चलाकर जीवनयापन कर रहे हैं। इनमें से कुछ तो भीख मांगने के लिए भी मजबूर हैं। अंग्रेजी शासन के दौरान इनके पूर्वजों को भोजपुर से काम के लिए म्यांमार भेजा गया था। सत्तर के दशक में जब वे देश लौटे तो सरकार ने उन्हें रहने और खेती के लिए जमीन दी। ताज्जुब है कि आज 44 साल बाद भी उन्हें जमीन पर कब्जा नहीं दिया गया है। वे शरणार्थी शिविरों में रह रहे हैं।
80 साल के गिरिजा प्रसाद कुशवाहा बेतिया के शरणार्थी शिविर में रह रहे हैं। उनके मुताबिक जब 24 जून 1974 को वे अपने वतन लौटे तो सरकार की ओर से चंपारण के मैनाटांड़ में इनको खेती-किसानी के लिए जमीन भी दी गई मगर उसका मालिकाना हक उन्हें आज तक नहीं मिला है। ऐसे वे अकेले नहीं कई परिवार हैं। नतीजतन आज इनमें से अधिकतर लोग जमींदार से मजदूर बन गए। कुछ रिक्शा चलाकर गुजारा कर रहे हैं। कुछ की हालत इतनी खराब है कि उन्हें भीख मांगने पर मजबूर होना पड़ रहा है। बेतिया के रिफ्यूजी कैम्प में रहने वाले ऐसे 14 परिवारों ने भारत सरकार से जमीन देने या फिरसे म्यांमार भेजने की फरियाद की है।
भुक्तभोगियों के मुताबिक भारत सरकार ने उन लोगों को किसान का दर्जा देकर वतन बुलाया था। लेकिन यहां कुछ नहीं मिला। अब तो परिवार के भरण-पोषण भी मुश्किल हो गया है। गिरिजा प्रसाद के अनुसार वे उस दिन को याद नहीं करना चाहते जब छह दिन की यात्रा कर जहाज से मद्रास (वर्तमान चेन्नई) बंदरगाह पर उतरे थे। गिरिजा प्रसाद कुशवाहा का कहना है कि उस वक्त एक केन्द्रीय प्रतिनिधि दल तत्कालीन बर्मा गया था। दल ने वहां रह रहे भारतवाशियों को देश लौटने का आह्वान किया। उन्हें किसान का दर्जा देकर खेती के लिए जमीन देने का भरोसा दिलाया। वतन लौटने की चाहत में उन्होंने म्यांमार में दो-तीन सौ बीघा जमीन तक की परवाह नहीं की। उनके साथ 14 अन्य परिवार भी वतन लौटे। एक अन्य रंगलाल साह ने बताया कि उन लोगों को भारत लौटने पर मैनाटांड़ के सिसवा भंगहा ले जाया गया। यहां पुर्नवास विभाग की ओर से जमीन पर कब्जा दिलाने की बात कही गई। लेकिन मैनाटांड़ पहुंचने पर पुर्नवास विभाग की जमीन नहीं मिली। इसके बाद सभी लोगों को बेतिया शरणार्थी शिविर में रख दिया गया। भोजपुर के सहार अंचल के बेरथ गांव से उनके दादा रामजीआवन, दादी फुलेश्वरी देवी व पिता जगपत कुशवाहा को ब्रिटिश शासन में बर्मा के जीआबाड़ी फ्यूम्यूने ले जाया गया था।
बोनाफाइड फार्मर का मिला था दर्जा :
अखिल बर्मा भारतीय कांग्रेस जीयावाड़ी के प्रेसिडेंट एचडी वर्मा ने उनलोगों को 10 जून 1974 को बोनाफाइड फार्मर का प्रमाणपत्र जारी किया था। तब उनके भारत लौटने की प्रक्रिया चल रही थी। वतन लौटने के दौरान भारतीय दूतावास से सभी लोगों का परिवार पहचानपत्र बनाया गया था।
बर्मा में था सम्मान :
रिफ्यूजी कैम्प में रह रहे दशरथ चौहान ने बताया कि बर्मा के टांगो जिले के हसनापुर गांव में उनकी दो सौ बीघा जमीन थी। इसमें खेती कर वे लोग खुशहाल जीवन बिता रहे थे। वहां भगवान बुद्ध के अनुयायी अधिक हैं। वे लोग भारतीय लोगों को सम्मान देते थे। बर्मा के लोगों का कहना था कि भगवान बुद्ध भी भारत के थे इसलिए भारतवंशी उनके लिए सम्मानीय हैं।

-        बयान -
अगर बेतिया शरणार्थी शिविर में रह रहे लोगों के पास जमीन मिलने का पर्चा है और उनको कब्जा नहीं मिला है तो अवश्य कार्रवाई की जाएगी। यदि वे इतने वर्ष पूर्व म्यांमार से यहां आए थे तो उनकी बात भी गंभीरता से सुनी जाएगी और सभी की उचित मदद की जाएगी।
- डॉ. निलेश रामचंद्र देवरे, डीएम, पश्चिमी चंपारण
( हिन्दुस्तान हिंदी दैनिक, 15 अप्रैल 2018 से साभार )